Thursday, July 22, 2010

सुकून भरी ख़बर

इन दिनों देश की तक़रीबन सभी विधानसभाओं में मॉनसून सत्र जारी है। पल-पल की ख़बर रखते हों तो सिरफुटौव्वल लाइव देख सकते हैं या फिर अगले दिन अख़बार की तस्वीरों को देखकर बीते दिन की कार्यवाही का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। अमूमन सभी विधानसभाओं में भ्रष्टाचार का मुद्दा गर्माया हुआ है। बिहार में चुनाव से ठीक पहले कैग की रिपोर्ट में 11,412 करोड़ रुपए की वित्तीय अनियमितताओं के मुद्दे को लेकर भूचाल आया है तो अवैध खनन और भ्रष्ट मंत्रियों को लेकर कर्नाटक विधानसभा में हंगामा जारी है। मध्य प्रदेश विधानसभा में भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सियासी तेवर तल्ख़ हैं। महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच सीमा विवाद की गूंज दोनों राज्यों की विधानसभाओं में सुनाई दे रही है, इतना ही नहीं बाभली जल विवाद को लेकर महाराष्ट्र का टकराव आंध्र प्रदेश से भी हो रहा है।
          कहने का आशय है, मुद्दों को लेकर सियासी लड़ाई चरम पर है। खेद सिर्फ़ इतना है कि इस लड़ाई में हथियार, बौद्धिक विमर्श या बहस ना होकर जूते-चप्पल, गमले और कुर्सियां हैं। हमनें अब तक सिर्फ़ भ्रष्टाचार का ज़िक्र किया है, इसके अलावा भी दिगर मुद्दे हैं जो गूंज रहे हैं। आंतरिक सुरक्षा, बढ़ती महंगाई और जाने क्या क्या… दो राय नहीं संसद के मॉनसून सत्र के भी ज़बरदस्त हंगामाखेज़ रहने के आसार हैं। ख़ैर, ज़्यादा तनाव मत लीजिए, अगर आपको दूसरों की ख़ुशी से राहत मिलती है तो एक सुकून भरी ख़बर है।
                                    भले ही आपकी थाली से वेरायटी ग़ायब हो रही है, भले ही आपके बटुए का वज़न रोज़ ब रोज़ हल्का हो रहा है, भले ही आपकी कंपनी आप पर मेहरबान ना हो रही हो... लेकिन, लेकिन सभी इतने बेबस और लाचार नहीं हैं। सभी ‘मैंगोपीपल’ नहीं हैं। जी हां, भले ही आप पाई-पाई की जुगत में लगे हों, भले ही आपका इंक्रीमेंट ना लग रहा हो लेकिन असम विधानसभा ने अपने विधायकों की तनख़्वाह में चार सौ फ़ीसदी का इंक्रीमेंट लगाया है, है ना सुकून भरी ख़बर।

Sunday, July 04, 2010

नींद में ख़लल तो नहीं ?

उस घर के लिए, वो चिराग़ उतना ही क़ीमती है... जितना मेरे घर के लिए मैं और आपके आंगन के लिए आप।।
-  निशांत बिसेन



ना ना करते भी शायद अब सरकारों का ये भरम टूटने लगा है कि उनका ख़ुफ़ियातंत्र, उनके सूत्र, उनकी रणनीति और उनके इरादे नक्सलियों पर नकेल लगाने के लिए काफ़ी हैं, ऐसा क्यों है ?? बताने या जताने की ज़रूरत शायद अब नहीं रह गई हो।
       पिछले तीन महीनों में सवा सौ से ज़्यादा CRPF के जवान, नक्सली क़हर का शिकार हो चुके हैं। ये वो जवान हैं.. जो नक्सलियों का मुक़ाबला करने के लिए बाहरी राज्यों से आए थे। ये उन जगहों पर हुई वारदातों में शहीद हुए, जहां का हर ज़र्रा लाल आतंक की ज़द में है। हर क़दम पर बिछा बारूद, हर शै में छिपी क़ातिलाना ख़ामोशी और इन सब से बेख़बर ये जवान... मानो झोंक दिए गए हैं उस समर में, जहां हर क्षण युद्ध के क़ायदे बदले जा रहे हैं।
       अव्वल तो सरकारें ये समझें कि क्यों इन ज़िंदादिल जवानों के सीने पर मौत की इबारत लिखी जा रही है ? क्यों उस रणभूमि में इन्हें अकेला छोड़ दिया गया है, जिसके भौगोलिक हालात से तक ये वाक़िफ़ नहीं ? उधर, नक्सली क़ामयाबी पर क़ामयाबी हासिल किए जा रहे हैं... और इधर, सिरफुटौव्वल जारी है। शहीदों के रिसते ख़ून को साक्षी मानकर हर बार नए सिरे से लड़ाई लड़ने की बात तो कही जाती है, लेकिन... ऐसा नज़र तो नहीं आता। फिलहाल तो यही तय नहीं है कि आर-पार की इस लड़ाई में हमारे लड़ाके कौन हैं ? राज्य पुलिस, केंद्रीय सुरक्षा बल, सेना या फिर कोई और ? सुरक्षा बलों में तालमेल की कमी भी मीडिया के मार्फ़त जगज़ाहिर हो चुकी है, हालिया वारदातों ने जता दिया है कि ख़ुफ़ियातंत्र बुरी तरह से विफल रहा है। यक़ीनन, आए दिन अपने साथियों का हश्र देख रहे जवानों के हौसले पर भी असर दिखने लगा है... वो मरने से नहीं डरते, लेकिन, सिर्फ़ इसलिए तो उन्हें मौत के मुंह में नहीं धकेला जा सकता। सियासी बयानबाज़ियों के लिए देश में मुद्दों की कमी नहीं... सियासतदां, सुरक्षा के मसले पर तो कम से कम संजीदा हों।
       एक वो हैं जो लड़ते-गिरते भारत मां के लिए वीरगति पाते हैं, एक ये हैं जो हर बार पानी सिर से ऊपर हो जाने की दुहाई देते हैं... और फिर ख़तरे के निशान को थोड़ा ऊपर कर देते हैं।