Wednesday, February 24, 2010

ममता Vs सचिन

बजट का सीज़न है, दिन निकला.. सबको इंतज़ार था.. आज ममता बनर्जी रेल बजट पेश करने जा रही थीं। उम्मीद थी कि कुछ नया होगा। जुलाई 2009 में जब बंगाल शेरनी ने बजट पेश किया तो काफ़ी कुछ नया था, बजट में कुछ नया रहा होगा या नहीं, लेकिन जिस तरह उन्होंने पूर्ववर्ती रेल मंत्री लालू जी को कटघरे में ला खड़ा किया वो जिगरे का काम था। जी हां, उन्होंने सीधे लालू पर निशाना साधा और कहा कि रेलवे का मुनाफ़ा फ़र्ज़ी है, आंकड़ों की बाज़ीगरी है... सीधे तौर पर उन्होंने लालू के इरादों और उनकी कार्यशैली पर ही प्रहार कर दिया या यूं कहे कि लालू की बनती छवि पर पलीता लगा दिया।
    ख़ैर, बारी ममता की थी, अपनी बंगाल केंद्रित छवि से बाहर निकलना चुनौती थी। लेकिन मुमक़िन न रहा, अगर आपने बजट भाषण सुना हो तो महसूस किया होगा कि बाहरी राज्यों की घोषणाओं पर वो जमकर प्रदर्शन करती रहीं, लेकिन दबी ज़ुबान में अगला ऐलान बंगाल के नाम करने से नहीं चूकी। किसको क्या मिला, मायने नहीं रखता... क्योंकि ममता ने सबके लिए कुछ ना कुछ रखा ही था... अब भला Dependence of availability की भाषा कौन समझता है। बजट लोकलुभावन रहा, बंगाल और बिहार की तो मानो पौ बारह हो गई।
   दिन भर ममता मेल, दीदी की ट्रेन, ममता की छुकछुक, ममता से आस, माई नेम इज़ ममता जैसे प्रोग्राम टीवी पर जमकर छाए रहे, चार बजते-बजते ममता की ख़ुमारी उतरी... और छा गए सचिन। जी हां, लोग भूल ही गए कि उन्हें क्या मिला और क्या नहीं मिला। सचिन के डबल धमाके के आगोश में हर कोई ऐसा डूबा कि बजट... गया भाड़ में। टीवी चैनलों ने तो ये तक चला दिया कि 'भूलो बजट को सचिन को देखो'। बेशक़, सचिन का प्रदर्शन बेहतरीन रहा....
     लेकिन सोचिए, क्या हमारा रोमांच... हमारी ज़रूरतो, हमारे अधिकारों पर हावी हो रहा है... वो भी एक ऐसे राज्य में रहते हुए, जिसे कुछ भी नहीं मिला।।

Friday, February 19, 2010

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हमनें एक कोशिश की है,

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Friday, February 05, 2010

क़ामयाब रहा मिशन मुंबई


लंबे समय से उत्तर भारतीयों को लेकर मातोश्री में लिखी जा रही पटकथा के पन्नों को आज एक ऐसी आंधी उड़ा ले गई, जिसे हवा का कमज़ोर झोंका समझा जा रहा था। कांग्रेस का ये बांका सजीला नौजवान नेता लंबे समय से देश को समझने में लगा है और लगातार की जा रही अपनी ईमानदार कोशिशों से अब देश भी उसे समझने लगा है। सियासत के मौजूदा ट्रेंड से हटकर 'नेता' शब्द की खोई परिभाषा को हासिल करने के लिए राहुल गांधी जुटे हुए हैं। पटना का वीमेन्स कॉलेज हो, जबलपुर का सेंट अलॉयसियस या फिर मुंबई का भाईदास हॉल... हर मौक़े पर राहुल टीनएजर्स और युवाओं में ख़्वाब जगाते दिखे।
उत्तर भारतीयों को लेकर यूं तो शिवसेना लंबे समय से ज़हर उगल रही थी, सवाल सिर्फ़ उत्तर भारतीयों का नहीं। बल्कि उस मुंबई का है, जिसकी रगों में आहिस्ता-आहिस्ता नफ़रत की सीरींज सुभोई जा रही है... जिस किसी ने भी मुंबई को पूरे देश का बताने की कोशिश की, सेना ने उसी की ओर निगाह तरेरी। हालिया बयान दिया, राहुल ने... उन्होंने कहा कि भारत, पूरे भारतीयों का है। भला इस बयान पर किसी को क्या एतराज़ होगा, लेकिन शिवसेना को ये रास नहीं आया, उन्होंने राहुल को जमकर कोसा। फिर क्या था, बेहद शांत, संयत दिखने वाले राहुल ने मुंबई जाने का प्लान बनाया, आनन-फ़ानन में तैयार हुए शेड्यूल के बीच मुंबई जाने के ठीक एक दिन पहले राहुल ने मराठी नौजवान राजीव सातव के हाथों में राष्ट्रीय युवा कांग्रेस की कमान सौंपी। सेना का बूढ़ा शेर ड्रॉइंग रूम में बैठे-बैठे चिल्लाता रहा कि राहुल गांधी का मुंबई पहुंचने पर पुरअसर तरीके से विरोध होगा, राहुल कुछ नहीं बोले।
शुक्रवार, आज मुंबई का सूरज नई चमक के साथ कांग्रेस के इस सितारे का इंतज़ार कर रहा था। सुरक्षा के चाक-चौबंद इंतज़ामों के बीच राहुल मुंबई पहुंचते हैं, 4 घंटे देश की आर्थिक राजधानी में बिताते हैं... बिना मीडिया से मुख़ातिब हुए... बिना कोई बयान दिए, वो मुंबईकर का दिल जीत कर चले जाते हैं। महज़ 4 घंटों में वो मुंबईवालों का दिल जीत लेते हैं, और शिवसेना के पास सिवाय हाथ मलने के कुछ नहीं रह जाता। समझ नहीं आता शिवसेना को बयान देने और अपने घर के अख़बार में लिखने की ऐसी क्या जल्दी होती है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि
सेना को एहसास हो गया है कि उसका जनाधार तेज़ी से कम हो रहा है, और राहुल के आने पर उठे काले झंडे उसकी बौखलाहट है ? राहुल के मुंबई आने से पहले बाला साहेब कहते और लिखते रहे, अब उनके जाने के बाद उद्धव कह रहे हैं कि राहुल ने मुंबई में जो कुछ भी किया, वो दिखावा है। लेकिन, अब इससे क्या ? मुल्क़ लगातार देख रहा है कि कौन क्या कर रहा है। दिखावा और ढोंग एक बार हो सकता है, दो बार या तीन बार हो सकता है, लेकिन लगातार की जाने वाली उनकी कोशिशें ईमानदार हैं... ये राहुल जता चुके हैं। बीते कुछ बरसों में अपने गिरते स्तर से सियासत जितनी शर्मसार हुई है, राहुल जैसे नेता उसका खोया गौरव फिर दिलाना चाहते हैं। इस लेख का मक़सद राहुल गांधी का महिमामंडन नहीं है लेकिन उनका बढ़ता क़द और मौक़परस्तों को कमज़ोर होते देखना सुकून भी देता है।

Wednesday, February 03, 2010

कौन सुनेगा हमें ?


सोचता हूं सियासत में हाथ आज़मा लूं, वैसे ग़लत नहीं सोचता... ग़लत इसलिए नहीं, क्योंकि सुना है इन दिनों राजनाति में भी टैलेंट हंट चल रहा है, राहुल तो युवाओं की नेतृत्व क्षमता को परख ही रहे हैं, उम्मीद है उधर गडकरी को भी देर सबेर युवा शक्ति का इल्म हो ही जाएगा.. और हम तो ठहरे पुराने क़ाबिल। भले ही उम्र 26 की हो, लेकिन जज़्बा कुछ कर गुज़रने का है... तो तय रहा कि अगला विधानसभा चुनाव लड़ेंगे हम। हम तो लड़ लेंगे लेकिन मुश्किल ये है कि कौन हम पर दांव लगाएगा, कांग्रेस, भाजपा या कोई और..?
हम मिडिल क्लास लोगों के साथ यहीं मुश्किल है, जहां जाते हैं एक नई शुरुआत, एक नई पहचान हासिल करने की चुनौती... ना ख़ुद को पेश करना करना आता है, और ना होता है कोई गॉडफॉदर... ना किसी नामचीन राजनीतिक ख़ानदान के वारिस होने का तमगा। डगर मुश्किल है, चुनौतियां कई हैं, राह कांटों भरी है... फिर भी हम तो ठहरे हम... इराद कर लिया है तो कर ही लिया है।
तो कहां थे हम...? कौन बनेगा हमारा गॉडफॉदर…? भई ये नया दौर है, और इस नए दौर में हम लोग आगे नहीं आएंगे तो कौन भला आएगा, गांव के गर्दों-गुबार से गुज़रकर कॉर्पोरेट हाउस का चेहरा बन चुके हम ही तो हक़ीक़त में वर्तमान हैं। हमें ही तो जूझना है... अपने हिस्से का संघर्ष तो कर ही लें।
वैसे भी,

हम ख़ुद तलाशते हैं मंज़िल की राहों को,
हम वो नहीं हैं जिनकों ज़माना बना गया।।

इस लेख में मैंने कई दफ़ा हम शब्द का इस्तेमाल किया है, इस हम में कई मैं शामिल हैं... कोई सुनेगा हमें।।