Wednesday, September 23, 2009

कोई इधर भी देखे




छत्तीसगढ़ की राजधानी से तक़रीबन 230 किलोमीटर की दूरी पर बसा एक शहर, कोरबा... आप इसे ऐसे भी जान सकते हैं कि यहां बालको का पॉवर प्लांट है। देश-दुनिया की तमाम हलचलों से बेख़बर ये शहर रोज़ की तरह अपनी ज़िंदगी जी रहा था। न्यूज़ चैनलों की सुर्खियों में बने रहने के लिए ना ही यहां कोई बच्चा गड्ढे में गिरा था और ना ही इस शहर के किसी बाशिंदे ने अपनी दिक्कतों से आजिज़ होकर इच्छा मृत्यु की गुहार लगाई थी, ना ही सुर्खियां बटोरने के लिए कोई आदम ख़ुदा बना हुआ था।
गरबे की धूम और राहुल महाजन के स्वयंवर से पटे मसाला बुलेटिनों के बीच शायद आप तक कोरबा में हुए हादसे की ख़बर आप तक पहुंची हो... शायद न भी पहुंची हो। दरअसल, कोरबा के बालको पॉवर प्लांट में एक बन रही चिमनी के गिर जाने से इसके मलबे में सैकड़ों लोग फंसे गए, 22 की तो मौत की पुष्टि भी हो चुकी... जबकि 25 इंजीनियरों समेत दर्जनों मज़दूर अब भी मौत के दामन से वापस आने के लिए जूझ रहे हैं। अगर वो ज़िंदा रहे तो ख़ुशकिस्मत वरना मौत के बाद वो एक लाख रुपए तो उनके घरवालों को मिल ही जाएंगे, जिसका ऐलान राज्य सरकार ने कर दिया है। दरअसल, हुआ कुछ यूं कि यहां 250 मीटर ऊंची चिमनी का निर्माण चल रहा था, चिमनी का काम 100 मीटर तक पूरा भी हो चुका था... अचानक क्या हुआ जो इतनी बड़ी चिमनी भरभराकर गिर पड़ी, और एक साथ कई घरों के चिराग बुझ गए ?
इतना बड़ा निर्माण, इतना बड़ा नाम... और इतनी ग़ैर संजीदगी ? ऐसा भी नहीं कि इस तरह का हादसा कोई पहली दफ़ा हुआ हो, किसी ने पिछले हादसों से सबक लेने ज़रूरत नहीं समझी, निर्माण में इस्तेमाल किए जा रहे सामानों का गुणवत्ता पर ख़रे न होना भी इस हादसे की बड़ी वजह रहा, वरना हम ‘हादसों की चिमनी’, ‘चिमनी में मौत’, ‘100 मीटर ऊंची मौत’ जैसी उपमाओं का इस्तेमाल न कर रहे होते।


सरकार ने भले ही न्यायिक जांच के आदेश दे दिए हैं, मुआवज़े का ऐलान भी कर दिया है... बेहतर होगा सरकार और प्रशासन इन हादसों की पुनरावृत्ति को रोकने की दिशा में क़दम उठाए।
बात हादसे की जगह पर मौजूद भीड़ की, बात उस भीड़ के ग़ुस्से की, बात आक्रोश की... ये ग़ुस्सा ऐसा भड़का कि एक की जान लेकर ही माना। अपने साथियों को दम तोड़ते देखकर कुछ मज़दूरों के निर्माण कंपनी के एक कर्मचारी को मारने को अब सही कहा जाए या ग़लत, ये फ़ैसला आप करें।
इस वक़्त ज़रूरत है, मरने वालों के परिवार वालों के साथ खड़े रहने की। ज़रूरत है मलबे में फंसे लोगों को फिर ज़िंदगी देने की... ताकि मौत का ये ग्राफ 22 से ऊपर ना बढ़ सके।

Tuesday, September 22, 2009

शुभकामनाएं


न्यूज़ रूम की आख़िरी क़तार में कुर्सी नीचे कर बैठना, और ये सोचना कि कोई देखे ना। की-बोर्ड पर तेज़-तेज़ उंगलियां चलाना, कुछ वक़्त खुद के लिए चुराना... किसी की, किसी के लिए या फिर किसी का नहीं... बल्कि लंबे समय से अपने दिमाग़ में चल रही बातों को ये सोच कर लिखना कि मैं काफ़ी दिनों बाद लिख रहा हूं, बड़ा सुकून देता है।
ज़्यादा वक़्त नहीं गुज़रा ब्लॉगिंग शुरू किए, सोचा था यहां रेगुलर रहूंगा... लेकिन तब से अब तक का ये फ़ासला तक़रीबन दो महीने का है। चलिए इन फ़ासलों को पाटा जाएं, दूरियों को नापा जाए।
सबसे पहले तो आपको त्योहारों की बहुत-बहुत शुभकामनाएं। इन दिनों गरबे पर थिरकते क़दमों के साथ पूरा देश झूम रहा है, मंदिरों में आस्था की छटा देखते ही बनती है, दशहरे की तैयारियां ज़ोरों पर है... और सेवइयों की ख़ुशबू अब तक माहौल ख़ुशनुमा किए हुए है। मैं इस वक़्त जहां हूं यानि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर, यहां भी आस्था की बड़ी गौरवशाली परंपरा है, इस राज्य में ऐसी जगहों की कमी नहीं जहां पहुंच जाने पर आपको ना केवल आत्मिक शांति मिलती है बल्कि आप पहले से ज़्यादा आत्मविश्वास से भरे होते हैं। नवरात्र में इन दिनों अगर आप सड़कों पर देखें तो आपको लगातार ऐसे जत्थे नज़र आएंगे जो मातारानी के दरस को निकले होते हैं, नंगे पांव... पता नहीं कहां से आ रहे हैं, कहां जा रहे हैं... पूरे जोश के साथ। दुनिया तो घूमी नहीं, लेकिन सौ फ़ीसदी यक़ीन है... ये हिंदुस्तान में ही होता होगा। आस्था और श्रद्धा की अलख जगाते, माता के जयकारे लगाते, ये बताते-जताते कि वो माता के सबसे अच्छे बच्चे हैं... वो चले जा रहे हैं। उम्मीद है क़दम दर क़दम बढ़ती ये आस्था, देश और समाज को और मज़बूत करेगी।
हम हिंदुस्तानियों में एक ख़ासियत तो है, हम उत्सवों में ज़िंदगी तलाशते हैं। भले ही हम तमाम मुश्किलात से घिरे हों लेकिन मज़ाल है जो जश्न का एक मौक़ा भी हम गंवा दें। हो सकता है कई लोगों ने बड़ी दिक्कत में पिछला वक़्त गुज़ारा हो, कुछ ने नौकरियां गंवाई तो कुछ ने कारोबार में घाटा सहा... कुछ अच्छे वक़्त का इंतज़ार करते रहे तो हम जैसे कुछ पे-स्लिप के वज़नदार होने का। बीता वक़्त देश के लिए बहुत बेहतर नहीं रहा, बारिश... इसकी बेरुख़ी ने तो जैसे इकोनॉमी की चूले हिला दी, बादलों का रुठना ही तो रहा जो सरकार भी आने वाले वक़्त को लेकर फ़िक्रमंद दिखाई दी। लंबे समय बाद सादगी पर ज़ोर दिया जा रहा है, ख़र्चों पर लगाम लगाने की सारी तरक़ीबें भिड़ाई जा रही है। इस बीच जनता के चुने नुमाइंदों ने अपने बे सिर पैर के बयानों से खुद के चुनाव को चुनौती भी दी, उन्होंने जता दिया कि भीड़ से अलग दिखने की हसरत उनसे कुछ भी कहलवा सकती है। ख़र्चों में कटौती के लिए सारे जतन, सारे दिखावे ज़ोरों पर हैं। पहली बार पूर्व सांसदों के दिल्ली के सरकारी आवासों पर भी नज़र टेढ़ी हुई, जो सरकारी दामाद बने मलाई काट रहे थे। वैसे ये बात और है कि इसमें वो भी नप गए जो अब भी सांसद हैं।
इधर, चुनावों की तैयारियां भी ज़ोर-शोर से जारी है, नए दोस्तों की तलाश पूरी हो चुकी अब दुश्मनों पर कीचड़ उछालने की बारी है। दिग्गजों से लेकर कलावती तक चुनावी समर में कूदने की तैयारी में हैं। त्योहारी जलसे पूरे हों तो लोकतंत्र के इस जलसे का भी लुत्फ़ उठाया जाएगा।
फ़िलहाल तो शुभकामनाएं त्योहारों की, आपको... आपके परिवार को।।

और हां, अबकि दीपावली एक दीया किसी और के सूने आंगन में ज़रूर जलाएं... एक फुलझड़ी किसी मासूम के खाली हाथ में ज़रूर दें।

Thursday, July 23, 2009

क्या सही हैं आप ???




कैसे हैं आप ? चलिए आज कुछ नई बात की जाए... मैं पुराना, आप पुराने, माहौल पुराना, सभी कुछ तो पुराना है फिर नया क्या कहा जाए ? नए की छोड़िए, कुछ पुराना ही सुनाइए, अजी पुराने में क्या रखा है... पुराना भी भला कभी बातचीत का मसला हुआ है ? फिर किस पर बात की जाए... अअअअअ$$$$$ अच्छा कभी आपको खुद के सही या ग़लत होने का एहसास हुआ है ? आपके सही की सही चर्चा न होना ये बताता है कि आप अक्सर सही होते हैं, और ये रूटीन में शामिल हो तो मान लीजिए कि आप सही हैं, ऐसा मैं मानता हूं। फिर ग़लत क्या है ….. सही की छोटी सी भी ग़लती, उसे ग़लत साबित कर देती है, आप समझ रहे हैं ना... दरअसल, हर किसी की एक इमेज होती है। उसी में सही और ग़लत छिपे होते हैं। बार-बार ग़लत होना, और उसे सही अंदाज़ में सही साबित करना हर किसी के बस में नहीं, ठीक वैसे ही हर बार सही होकर भी उसे सही साबित न कर पाना ग़लती के दायरे में शामिल हो जाता है। अरे ज़्यादा मत सोचिए, इस सही और ग़लत के बीच बड़ी महीन सी रेखा है... मुझे लगता है कि मैं हमेशा सही होता हूं, ये सही भी है, लेकिन वही ना... मैं खुद को सही तरीके से रख नहीं पाता, मैं ही नहीं.. मुझ जैसे कई हैं, जो दुनिया का सही जानते ही नहीं। ये सही थोड़े न, कि हर वो बात सही हो, जो आप सही सोच रहे हों, हो सकता है कि आपका सही सामने वाले को सही ना लगे। सही तो वो है तो सामने वाले को प्यारा लगे, और आपके दिल को झूठा। ठीक वैसे ही, आपको जो ग़लत लग रहा हो वो ग़लत नहीं भी हो सकता, दरअसल, ग़लत तो वो है जो सबको ग़लत लगे। आप एक के ग़लत महसूस कर लेने से क्या होना है।
अच्छा एक मज़ेदार बात, ग़लत के बारे में। ये जो ग़लत है ना... हर जगह है। हर बात में है, हर किसी में है, हम सब में है। हर चीज़ सामूहिक तौर पर मज़बूत होती है लेकिन ये ग़लत, कमबख़्त अकेला होने पर ही ताक़तवर होता है। हां मैं सही कह रहा हूं, फिर वही बात, सही बात जो ठहरी, कहा ना... अकेला सही खुद को साबित नहीं कर पाता, तो आप भी क्यों मानेंगे ?? सुनिए तो प्लीज़... आपको बात ग़लत तब ही लगती है जब वो आपके साथ होती है, औरों के साथ भी तो होती है... आप इग्नोर कर देते हैं, इसका एक हिस्सा भी आपके साथ हो जाए तो आप आसमान सर पर उठा लेते हैं... अजी आसमान छोड़िए, किसी के भी साथ ग़लत होने पर खुद के सही को ललकारिए, मज़ाल है कि ग़लत सर उठा सके। क्यों किसी का ग़लत आपके सही को दबा देता है, क्यों आपका सही उस ग़लत के आगे दुबक जाता है जिसका वजूद ही नहीं, क्यों किसी ग़लत के आगे आपके सही की सिसकियां दम तोड़ देती है ? अच्छा एक फॉर्मूला देता हूं, आज़माइएगा... अगर आपका सही हमेशा दबा रहा हो, हमेशा नकार दिया जा रहा हो, तो उसके कान में जाकर ये कहिएगा कि वो ग़लत है, वो झूठ बोल रहा है। आज़माइए तो सही... फिर देखिए इस सही की ताक़त, इस एक सही के पीछे पूरी दुनिया खड़ी दिखाई देगी, ये सही सब बर्दाश्त कर सकता है, लेकिन खुद को ग़लत की क़तार में खड़ा देखना... कतई नहीं। सही, इस सही को सही देखना बड़ा सही लगेगा।।

Friday, July 17, 2009

हर रंग मेरा...



जब से होश संभाला एक ही सवाल सुना कौन सा रंग पसंद है तुम्हे... कभी कहा लाल, कभी गुलाबी बताया, कभी तकलीफ़ में ये काला हो गया, कभी ग़ुस्से में ये लाल रहा। आप नहीं पूछेंगे कौन सा रंग पसंद है मुझे... पूछेंगे ना। मैं भी जवाब दूंगा... बदरंग हो गया हूं इन दिनों। बड़ा तल्ख़ सा जवाब दिया ना, ये तल्ख़ी यूं ही नहीं दोस्तों। आपको नहीं लगता कभी रंगों से भी पूछा जाए, क्या हम उन्हे पसंद हैं ? वैसे ना ही पूछे तो बेहतर है, अजी सही कहा हमने। हम तो हर रंग में रंगने का हुनर पाल बैठे है। अच्छा रंगों की भी कोई दुनिया होती होती होगी ना, उनमें भी कोई बड़ा होता होगा तो कोई छोटा, कोई अगड़ा होता होगा तो कोई पिछड़ा, कोई कहता होगा कि मैं बड़ा, दुबका पड़ा दूसरा कहता होगा, मैं भी कम नहीं। लाल कहता मुझे क्रांतियों ने स्वीकारा, सफेद कहता मुझे शांति ने आत्मसात किया, काला कहता मुझे शोक पर गर्व है, गुलाबी कहता मुझे इश्क़ पर नाज़ है। लड़ते तो ये भी होंगे... यक़ीनन लड़ते होंगे, झगड़ते होंगे रूठते होंगे, लेकिन मनाते भी होंगे। नहीं मनाते होंगे....? अरे मैं रंगों की बात कर रहा हूं, इंसानों की नहीं, यक़ीनी तौर पर ये एक दूसरे को मनाते होंगे। ‘नहीं मनाते होंगे’ बड़ा सवाल नहीं, मुद्दा तो मान जाना है। क्या इनमे ग़ैरत नहीं, अब भला ग़ैरत बीच में कहां से आ गई ?
ग़ैरत तो मुखौटा है, मसला तो रूहानी है।


सही कहा मैनें, आपने कोशिश ही नहीं की, मनाने की.... साहब, इस दफ़ा रंगों की नहीं इंसानों की बात कर रहा हूं। कभी कोशिश की बिछड़ों को वापस पाने की, नहीं ना ? कभी कोशिश की रूठों को मनाने की, नहीं ना ? आपको तो मलाल भी नहीं हुआ उनके दूर जाने का, है ना ? कभी सोचा आपने वो कहां हैं, किस तरह जी रहे हैं, हक़ीक़त के थपेड़ों ने कहीं उनके चेहरे पर शिकन तो नहीं छोड़ दी ? हालात की तपिश ने उनका लहज़ा तो नहीं बदल दिया ? जो भी हो... वो ख़ुश हों, बेहतर ज़िंदगी जी रहे हों। सच कहा साहब, वो ग़ुस्सा, वो तल्ख़ी पल भर की थी। तुम भी कैसे हो, तुम तो मेरे अपने थे, मेरे दोस्त थे, मेरे हमराज़ थे। तुम भी नहीं समझे, और मैं भी... तुम्हे समझा न सका। समझे... न सही, ग़ुस्सा... हां सही, नाराज़गी... जायज़ थी, लेकिन रिश्तों के दरक जाने का सबब तो पूछा होता। हक़ से कहा होता, ये सही नहीं। न तुमने पूछा, न हमने बताया। लेकिन हम तो एक रंग थे... मुझ बिन तुम अधूरे, तुम बिन मैं खाली-खाली।

Tuesday, July 14, 2009

अब मुझे सो जाना चाहिए।।


सोच रहा हूं कि आज कुछ लिख ही लूं, नहीं रहने दिया जाए... रात के दो बज चुके हैं... 16-17 घंटे हो चुके हैं काम करते करते, दिमाग़ को आराम दिया जाए। सुबह फिर दफ़्तर आना है। आप भी छोड़िए, क्या पढ़ रहे हैं, अजी रहने दीजिए। देखिए मैं बिल्कुल भी लिखने के मूड में नहीं हूं... अरे, आप भी अजीब हैं, कह दिया ना लिखने का इरादा नहीं है। ग़ज़ब है, भई कोई ज़ोर ज़बरदस्ती है क्या... नहीं लिखना तो नहीं लिखना। वैसे भी इस वक़्त सूनी रातों में बारिश की तेज़ बूंदे चीख-चीख कर कह रही हैं कि डरो.. मुझसे ख़ौफ खाओ। लेकिन, जब ये स्याह रात मुझे लिखने से नहीं रोक पा रही तो भला मैं आपको पढ़ने से कैसे रोक सकता हूं। लेकिन सच कहूं ये उनींदी आंखें और की-बोर्ड पर कांपती उंगलियां बिल्कुल भी लिखने की इजाज़त नहीं दे रही। जाने मन क्यूं बेचैन है, जाने तरह-तरह के ख़्याल आ रहे हैं। जाने क्यूं लग रहा है कि लिख देने से सब ठीक हो जाएगा। मैं आपको इस लेख को पढ़ने से इतना मना कर चुका हूं कि मुझे पूरा भरोसा है कि आप अब तक इसे पढ़ना बंद कर चुके होंगे।
अगर ऐसा है तो चलिए मैं आपको बताता हूं मेरे अंदर और बाहर क्या चल रहा है। शुरुआत अपने पास से करता हूं... अरे भई तुम क्यूं आ गए भला, तुम्हे भी की-बोर्ड के आस-पास बने चाय के धब्बे अब ही नज़र आने थे... ठहरो-ठहरो, आ गए हो तो साफ़ कर ही लो। हो गया... मेरे सामने बहुत से टीवी चैनल चल रहे हैं, एक में समलैंगिकता पर ज़ोर शोर से विमर्श चल रहा है। वैसे ये मुद्दा है बहुत दिलचस्प, कभी सोचा भी नहीं था इस पर भी विमर्श हो सकता है !! शायद हम उस मुहाने पर खड़े हैं जहां नया पाने की हसरत में फेंका हुआ कूड़ा ही हमारा हासिल रह गया है। छोड़िए, मेरे चैनल पर छत्तीसगढ़ में शहीद हुए जवानों की ख़बर चल रही है, आपको पता है ना... छत्तीसगढ़ में रविवार को जो कुछ हुआ, वैसे ये संवेदनशील मुद्दा है। क्या ये वाकई गंभीर मसला है, तो फिर हमें तकलीफ़ क्यूं नहीं हो रही। ये क्या, अच्छा दिल्ली मेट्रो हादसे की ख़बर है, दिल्ली में हुआ मेट्रो हादसा भी ठीक नहीं रहा, लेकिन ये बड़ी ख़बर है... आख़िर दिल्ली की है।

अरे छोड़िए हम भी कहा टीवी देखने में उलझे हुए हैं, आपको पता है आज यहां झमाझम बारिश हुई, सावन का पहला सोमवार और बारिश की तीखी फुहारें... इसकी दरकार तो थी। वैसे इस बार देश की तमाम जगहों पर मॉनसून के देरी से पहुंचने से जो नुकसान होना था वो तो हो गया लेकिन रही कसर बारिश के न होने ने पूरी कर दी है। सोचिए अगर ठीक बारिश नहीं होगी तो क्या होगा, केंद्र सरकार का 9 फ़ीसदी की विकास दर का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाएगा, महंगाई भी बढ़ जाएगी... अरे केंद्र को राज्यों को स्पेशल पैकेज भी तो देने होंगे। लेकिन क्या राज्य सरकारें किसानों को स्पेशल पैकेज देगी, नहीं ना। यार फिर तो भीखू मुश्किल में पड़ जाएगा, क्योंकि खुदकुशी तो वो करेगा नहीं और रही बात पलायन की तो गांव वो छोड़ सकता नहीं। फिर भीखू करेगा क्या, लगता है आप भीखू से मुख़ातिब नहीं। मैं आपको रूबरू कराता हूं, दरअसल भीखू नाम से ही भीखू है। भीखू का गांव में अच्छा ख़ासा रसूख़ है, ज़मीन भी ठीक ठाक है। भीखू की खेती की लोग मिसालें दिया करते थे, लेकिन इधर 5-10 बरसों में हालात ज़रा बदले हैं, खेती पर असर दिखने लगा है। एक तो परिवार छोटा, तिस पर मज़दूर नहीं मिल रहे आजकल। थोड़ी मुश्किल तो पेश आ रही है भीखू को, और ये अकाल की दस्तक, पेशानी पे बल पड़ना लाज़मी है। ख़ैर, इन भीखुओं की अब आदत पड़ चुकी है, और कौन सी खेती ही करती रहनी है... 2-4 बरस और फिर भीखू का शहर गया बेटा कमाने जो लगेगा... फिर किसे करनी खेती ? मैं सोचूं कि जिस भीखू का बेटा शहर न गया हो पढ़ने, उसका क्या होगा ? कहां 3-4 लाख सालाना निकल ही आता था पहले, लेकिन अब शहर में इतना भी नहीं कि इनकम टैक्स के दायरे में आ सकें। फिर भी चेहरे पे ख़ुशी है, हां कौन गांव में रहे। अब देखो भला, बाहर बारिश पड़ रही है, और मैं मज़े से लिख रहा हूं, अभी गांव होता तो बिना बिजली के मच्छर से संग्राम हो रहा होता। ठीक कह रहा हूं ना मैं... लेकिन अगर मैं इतना ही ख़ुश हूं तो रात के ढाई बजे क्यूं जाग रहा हूं, क्यूं उसे याद कर रहा हूं जिसे मैं पसंद नहीं करता, क्यूं पागलों जैसे कुछ भी लिखे जा रहा हूं। लगता है मुझे सो जाना चाहिए।










Wednesday, July 08, 2009

तो यूं रहा बजट का सोमवार...

कल का दिन मेरे लिए बेहद ख़ास था, पिछले चंद रोज़ से मैं इस दिन के इंतज़ार में भी था... आख़िर कुछ ख़ास तैयारियां जो थी। आख़िर देश के बजट जो पेश होने थे। सिलसिला शुरू हुआ शुक्रवार को... बंगाल की तेज़ तर्रार नेत्री और देश की रेल मंत्री ममता बनर्जी के रेल बजट पेश करने के साथ। दो दिन का इंतज़ार और था, फिर देश का आम बजट। टीवी का आदमी हूं, बजट को लेकर हमारी भी कुछ तैयारियां थी, सो मैं कुछ ज़्यादा ही सजग। शनिवार बीता, रविवार का दिन निकला, और शाम होते-होते मैं पहुंच गया दफ़्तर, अगली सुबह पेश होने वाले बजट पर कहानी लिखने। यही नहीं बजट की शब्दावली पर भी बाक़ायदा निगाह डाली मैनें। पूरी रात इस इंतज़ार में कट गई कि एसटीटी और सीटीटी ख़त्म होंगे या नहीं (इतनी हसरत तो वित्त मंत्री साहब को भी शायद ही रही होगी), और ख़त्म हो भी गए तो मुझे दूसरे दिन तक ये आर्थिक शब्दावलियां याद रहेंगी या नहीं।
ख़ैर साहब, सुबह हुई... और ये उदीयमान युवा पत्रकार चल दिया दफ़्तर, बजट पर अपनी ख़ास पेशकश देने। अपनी ही उधेड़बुन में था कि पड़ोस वाली आंटी पूछ बैठी, अरे बेटा आज सुबह-सुबह, मैने मुस्कुरा कर कहा, जी हां... आज दफ़्तर में थोड़ा ज़रूरी काम है, जल्दी बुलाया है। आंटी ने भी मुस्कुरा कर कहा, अच्छा आज बजट जो ठहरा... मैनें मन ही मन सोचा कि हम ही नहीं, लोग भी टीवी देखते हैं। मैं इजाज़त लेता इससे पहले ही आंटी ने फिर सवाल दाग़ा, अच्छा बेटा ये बताओ रसोई को राहत के कोई आसार हैं, क्या सिलेंडर सस्ता होगा, क्या महंगाई कम होगी ? रात भर एसटीटी, सीटीटी, एफबीटी और जानें किन-किन बजटीय शब्दों में उलझा मैं ये ख़ुशफ़हमी पाल बैठा था कि मैं ही परेशान हूं... यहां तो फ़िक्र करने वाले और भी हैं। मैनें तो बस इतना कह सका कि.. देखिए अब। मोटरसाइकिल स्टार्ट की और चलने ही को था कि आंटी फिर कह बैठी, अरे बेटा पेट्रोल भरवा लेना, दफ़्तर से लौटते-लौटते कहीं महंगा ना हो जाए। मैनें इस दफ़ा जवाब देना मुनासिब नहीं समझा और बढ़ गया आगे।
सोचा चाय पी लूं, ठहर गया नुक्कड़ की गुमटी पर। सुबह के आठ बजे ही यहां अच्छी ख़ासी भीड़ थी, मैनें सोचा देखा जाए माज़रा क्या है। चाय ऑर्डर की, और लग गया बतरस लेने। दो मिनट में सब समझ आ गया, मुहल्ले के सारे विद्वज्ञ बजट पर चर्चा कर रहे थे। किसी को आयकर छूट का दायरा बढ़ेगा या नहीं इस बात की फ़िक्र थी तो किसी को सरचार्ज हटने से इत्तेफाक था। समझते देर न लगी कि यहां से खिसक लेने में ही भलाई है।
मैं ऑफिस पहुंचा, सारे न्यूज़ चैनल आई एम द बेस्ट की तर्ज़ पर लगे हुए थे। बेहतर तकनीक और शानदार ग्राफिक्स हमारी तैयारियों के गवाह थे। वो आपाधापी चली कि पता ही नहीं लगा, बजट कब आया और कब गया। मुझे तो अपने एफबीटी और सीटीटी के ख़त्म होने का जश्न मनाने का मौक़ा भी नहीं मिला।
मैं लगातार लिखे जा रहा हूं, और आप हैं कि पढ़े जा रहे हैं। पूछिए तो सही, मैं कहना क्या चाह रहा हूं। मैं कहूं भी तो कैसे, क्योंकि मैं कहीं रिक्शा चला रहा हूं तो कहीं मैं पांच हज़ार मासिक आमदनी वाला बाबू हूं, मैं कहीं गृहिणी हूं तो कहीं वो मेहनतकश जिसे कमाना है, और सुकून से रात को अपने घर में चूल्हा जलते देखना है। मैं कहीं रईस उद्योगपति हूं तो कहीं लाखों रुपए की सालाना तनख़्वाह वाला प्रोफेशनल, मैं कहीं किसान हूं तो कहीं नौजवान। सबके बजट के अपने-अपने मायने हैं... देश के आम बजट में सबका खुद का बजट निहित है, किसी को तीन रुपए किलो में चावल या गेहूं देने की ख़बर सुकून देती हो तो किसी को विनिवेश पर एफएम की साफ़गोई। करोड़ों की किसी कंपनी का मालिक इस बात को सोचकर रात भर नहीं सो सका होगा कि उसकी कंपनी के शेयर लुढ़क गए तो कोई ग़रीब पिछले दो दिनों से ये सोचकर दीवाना हुआ बैठा होगा कि अब पच्चीस रूपए में महीने भर ट्रेन का सफ़र किया जा सकेगा। अजी हम तो दस हज़ार की आयकर छूट पर ही ख़ुशी नहीं छिपा पा रहे हैं लेकिन ऐसे भी हैं... जो चैनल और अख़बार के दफ़्तरों में बैठकर निर्यात में कमी का रंज मना रहे हैं।
यूपीए की नई सरकार है, दोबारा वापसी के बाद पहला बजट है। इस टीम का कैप्टन खुद जाना माना अर्थशास्त्री है, टीम में पी चिदंबरम हैं, प्रणब दा भी कम अनुभवी नहीं, पच्चीस साल पहले ही बजट पेश कर चुके हैं। ख़ैर सभी मंजे हुए खिलाड़ी हैं, तो हम भी कहां कम ठहरे, टिप्पणी तो देंगे ही देंगे... ख़बरनवीस जो हुए। सरकार की दोबारा वापसी हुई है, लिहाज़ा आम आदमी के क़दम ठीक ढंग से से आगे बढ़ रहे हैं या नहीं... ये देखना और इसे सुनिश्चित करना सरकार का फ़र्ज़ है। नरेगा के ज़रिए सरकार पांच करोड़ लोगों को रोज़गार दिए जाने के दस्तावेज़ दिखाती है, एक करोड़ से ज़्यादा युवाओं को रोज़गार देने की बात करती है.... लेकिन सवाल वहीं अटका है, ये रोज़गार संगठित तौर पर हो और स्थाई हो। किसी को तीन दिन भरपेट खिलाकर अगले चार दिनों के लिए भूखा नहीं छोड़ा जा सकता।
सरकार ने इस साल के लिए दस लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा का जंबो बजट पेश किया है, पुरानी और नई योजनाओं के लिए पैसा भी भरपूर मिला है... सरकारी प्रक्रियाओं के सरलीकरण के लिए कोशिशों में ईमानदारी भी दिख रही है, प्रणब दा के बजट को ‘गांवों पर फोकस’ करार दिया जा रहा है, लेकिन एक मलाल है, पैसा जिन पर और जहां ख़र्च होना है, इस बारे में थोड़े तफ़्सील से जानकारी और दी जाती तो बेहतर होता। उम्मीद है अगले बजट पर देश के और भी कई गांवों तक रोशनी दस्तक देगी, कुछ और बेरोज़गार मुहल्लों की चौपाल छोड़ घर का आसरा बनेंगे, उम्मीद है मेरे देश में शिक्षा का स्तर और सुधरेगा, पिछड़े इलाक़े ना केवल सड़कों से जुड़ेंगे बल्कि वहां अस्पताल और स्कूल-कॉलेज होंगे, उम्मीद है हम खुद को और महफ़ूज़ महसूस करेंगे, उम्मीद हैं हम और ख़ुश होंगे। तभी सही भारत निर्माण होगा, और हर क़दम पर भारत बुलंद होगा।

Tuesday, July 07, 2009

मेरा प्रेम पत्र


प्रिये,
काफ़ी लंबे वक़्त बाद प्रेम पत्र लिखने का मौक़ा मिल रहा है, यक़ीन मानों. हां इतना ज़रूर है कि स्कूली दिनों में गुलाबी कागज़ों पर कलम चला लिया करता था.. लेकिन कामयाबी शायद ही कभी मिली हो... मिलती भी कैसे, वो ख़त या तो दोस्तों के ख़ातिर हुआ करता या फिर इकतरफ़ा आकर्षण की ज़ोर आजमाइश।। ख़ैर, आज मौक़ा मिला है,
ठिकाना भी मिला है... और ख़ुद के भावों को उकेरने का दस्तूर भी... सो लिख देता हूं।
पहला सवाल, कैसी हो... बिन मेरे। मैं तो हालात की तपिश और ज़िम्मेदारियों का भरम पाल बैठा हूं, लगा हुआ हूं.. चल रहा हूं... ज़िंदगी में कुछ हासिल करने की होड़ में ना-ना करते मैं भी शामिल हो ही गया। मैं वो वादा तोड़ चुका हूं, जिसमें तुमसे और सिर्फ़ तुमसे चाहत का क़रार हुआ था... ऐसा नहीं कि तुमसे मेरी चाहत में किसी भी तरह की कमी आई हो... हुआ तो बस इतना है कि मुझे एहसास हो गया है कि ज़िंदगी सिर्फ़ और सिर्फ़ माशूका की ज़ुल्फों तले नहीं गुज़ारी जा सकती। और भी कई हैं, जो मुझमें, खुद की उम्मीदें देखते हैं... और भी हैं जो ये सोचते हैं कि मैं हूं ना.... । कैसे उनकी उम्मीदों से छल कर लूं
, कैसे सिर्फ़ खुद की सोचूं, कैसे ये कह दूं कि मैं नहीं हूं।

ख़ैर, तुमसे मिले लंबा वक़्त गुज़र चुका है, इस बीच मैनें तो कुछ ख़ास हासिल नहीं किया लेकिन उम्मीद है तुम्हें वो सब मिल रहा होगा.. जिसकी ख़्वाहिश तुमने की थी। मैं उस वक़्त तो नहीं कह पाया, लेकिन यक़ीन मानो तुम्हारे जाने से जो खालीपन मेरी ज़िदंगी में आया है, जाने क्यों वो जाता ही नहीं। शायद मैं ही इस सूनेपन से दिल लगा बैठा हूं, वैसे ये भी है कि इस खालीपन ने मुझे हमेशा इस बात का एहसास कराया है कि जो मेरा है वो कितना ख़ास है, और उसके खो जाने या छूट जाने पर कितनी तकलीफ़ होती है। तुम समझ रही हो ना...। अरे, ये क्या कह रहा हूं, तुम भला क्यूं समझोगी... तुमने कभी समझा ही कहां... और मैं भी ना चाहते हुए, तुम्हे समझा ही तो रहा हूं। ख़ैर छोड़ो, हम क्यों उलझ रहे हैं,
लंबा वक़्त निकल गया पिछली उलझन को सुलझाने में। यक़ीनन तुम्हारे दिलों दिमाग़ में ये सवाल ज़रूर आया होगा कि मैनें तुम्हे ख़त लिखने का कैसे सोचा, कैसे तुम्हे उसी हक़ से प्रिये कहा... जवाब बड़ा आसान है, हालात तुम्हारे लिए बदले होंगे, लेकिन मैं तो अब भी उसी मोड़ पर खड़ा हूं। वक़्त के गुज़रते लम्हे भी मेरी चाहत को कम करने में बेअसर साबित हुए, यूं समझो कि किसी वीराने में खुद को पनाह देती पुरानी आहटें आज भी पुरअसर तरीके से गूंज रही हैं।

मैनें तो हर पल तुम्हे सोचा, मेरे ख़्वाब-ख़याल, मेरा मक़सद.. सभी कुछ तो तुमसे मिला था, तुम ही तो थीं जो मुझसे कहती थी कि फलां ठीक है, और फलां ग़लत... और मैं हमेशा की तरह कुछ नहीं कह रहा होता। लेकिन सच तो ये है कि मेरा आज उसी दौर में लिख दिया गया था... उन्ही ख़ुशगवार लम्हों ने आने वाले कल की इबारत लिख दी थी।
आज भी मेरे सच और झूठ, सही और ग़लत का पैमाना वही है जो तुमने सिखाया था। तुम भूल चुकी होगी, यक़ीनन तुम्हे याद न हो... लेकिन तुम्हारी हर बात अब मेरा किस्सा है। कुछ कमियां मैं आज भी दूर नहीं कर सका हूं
, शायद दूर करना भी नहीं चाहता... मुझे ताउम्र अफ़सोस रहेगा कि मैं तुम्हे वो भरोसा नहीं दिला सका जो तुम चाहती रही। जिस एक अफ़साने पर मोहब्बत टिकी होती है, वो अफ़साना कब शुरू हुआ, कहां जाकर ख़त्म भी हो गया, पता ही नहीं चला... अब सोचता हूं कि रिश्तों का जो ताना-बाना हमने बुना था, क्या वो इतना कमज़ोर था। नहीं वो कमज़ोर नहीं हो सकता.. फिर कैसे दरक गई ये दीवार, जिसकी नींव गुलशन से चुने गए ताज़े फूलों पर रखी गई थी। लगता है उन फूलों में पहले जैसी बात नहीं रही, लेकिन सुना तो कुछ और ही था कि मुहब्बत के बासी फूल ज़िंदा सांसों से भी ज़्यादा असर रखते हैं।

कभी हालात मेहरबां हुए तो उम्मीद करता हूं कि फ़िज़ां फिर बदलेगी, सूख चुके दरख़्तों पर फिर कोपलें खिलेंगी, अरसे से सन्नाटे का दामन थामे मेरे दरो-दीवार किसी आहट को महसूस करेंगे, तेज़ चलती आंधियों में खुद का वजूद तलाशते क़दमों के निशान फिर कहेंगे कि यहां भी कोई चलता है। बुलबुल फिर कब्रगाह बन चुके मेरे आशियाने का रुख़ करेगी। जब तुम आओगी तो देखोगी, वक़्त के लम्हे आज भी वहीं ठहरे हुए हैं जहां तुम उन्हे छोड़कर गईं थी। हां एक बात और मेरे आंगन के सबसे कोने में एक ईंट है, उसके नीचे सुनहरे रंग की डिब्बी में एक पर्चा लिखा मिलेगा, उसे पढ़ना.. सोचना... और हां आंसू मत छलकने देना... क्योंकि मैं अगर ज़िंदा होता तो शायद तुम्हे रोने न देता।

तुम्हारा
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