बजट का सीज़न है, दिन निकला.. सबको इंतज़ार था.. आज ममता बनर्जी रेल बजट पेश करने जा रही थीं। उम्मीद थी कि कुछ नया होगा। जुलाई 2009 में जब बंगाल शेरनी ने बजट पेश किया तो काफ़ी कुछ नया था, बजट में कुछ नया रहा होगा या नहीं, लेकिन जिस तरह उन्होंने पूर्ववर्ती रेल मंत्री लालू जी को कटघरे में ला खड़ा किया वो जिगरे का काम था। जी हां, उन्होंने सीधे लालू पर निशाना साधा और कहा कि रेलवे का मुनाफ़ा फ़र्ज़ी है, आंकड़ों की बाज़ीगरी है... सीधे तौर पर उन्होंने लालू के इरादों और उनकी कार्यशैली पर ही प्रहार कर दिया या यूं कहे कि लालू की बनती छवि पर पलीता लगा दिया।
ख़ैर, बारी ममता की थी, अपनी बंगाल केंद्रित छवि से बाहर निकलना चुनौती थी। लेकिन मुमक़िन न रहा, अगर आपने बजट भाषण सुना हो तो महसूस किया होगा कि बाहरी राज्यों की घोषणाओं पर वो जमकर प्रदर्शन करती रहीं, लेकिन दबी ज़ुबान में अगला ऐलान बंगाल के नाम करने से नहीं चूकी। किसको क्या मिला, मायने नहीं रखता... क्योंकि ममता ने सबके लिए कुछ ना कुछ रखा ही था... अब भला Dependence of availability की भाषा कौन समझता है। बजट लोकलुभावन रहा, बंगाल और बिहार की तो मानो पौ बारह हो गई।
दिन भर ममता मेल, दीदी की ट्रेन, ममता की छुकछुक, ममता से आस, माई नेम इज़ ममता जैसे प्रोग्राम टीवी पर जमकर छाए रहे, चार बजते-बजते ममता की ख़ुमारी उतरी... और छा गए सचिन। जी हां, लोग भूल ही गए कि उन्हें क्या मिला और क्या नहीं मिला। सचिन के डबल धमाके के आगोश में हर कोई ऐसा डूबा कि बजट... गया भाड़ में। टीवी चैनलों ने तो ये तक चला दिया कि 'भूलो बजट को सचिन को देखो'। बेशक़, सचिन का प्रदर्शन बेहतरीन रहा....
लेकिन सोचिए, क्या हमारा रोमांच... हमारी ज़रूरतो, हमारे अधिकारों पर हावी हो रहा है... वो भी एक ऐसे राज्य में रहते हुए, जिसे कुछ भी नहीं मिला।।
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