Sunday, July 04, 2010

नींद में ख़लल तो नहीं ?

उस घर के लिए, वो चिराग़ उतना ही क़ीमती है... जितना मेरे घर के लिए मैं और आपके आंगन के लिए आप।।
-  निशांत बिसेन



ना ना करते भी शायद अब सरकारों का ये भरम टूटने लगा है कि उनका ख़ुफ़ियातंत्र, उनके सूत्र, उनकी रणनीति और उनके इरादे नक्सलियों पर नकेल लगाने के लिए काफ़ी हैं, ऐसा क्यों है ?? बताने या जताने की ज़रूरत शायद अब नहीं रह गई हो।
       पिछले तीन महीनों में सवा सौ से ज़्यादा CRPF के जवान, नक्सली क़हर का शिकार हो चुके हैं। ये वो जवान हैं.. जो नक्सलियों का मुक़ाबला करने के लिए बाहरी राज्यों से आए थे। ये उन जगहों पर हुई वारदातों में शहीद हुए, जहां का हर ज़र्रा लाल आतंक की ज़द में है। हर क़दम पर बिछा बारूद, हर शै में छिपी क़ातिलाना ख़ामोशी और इन सब से बेख़बर ये जवान... मानो झोंक दिए गए हैं उस समर में, जहां हर क्षण युद्ध के क़ायदे बदले जा रहे हैं।
       अव्वल तो सरकारें ये समझें कि क्यों इन ज़िंदादिल जवानों के सीने पर मौत की इबारत लिखी जा रही है ? क्यों उस रणभूमि में इन्हें अकेला छोड़ दिया गया है, जिसके भौगोलिक हालात से तक ये वाक़िफ़ नहीं ? उधर, नक्सली क़ामयाबी पर क़ामयाबी हासिल किए जा रहे हैं... और इधर, सिरफुटौव्वल जारी है। शहीदों के रिसते ख़ून को साक्षी मानकर हर बार नए सिरे से लड़ाई लड़ने की बात तो कही जाती है, लेकिन... ऐसा नज़र तो नहीं आता। फिलहाल तो यही तय नहीं है कि आर-पार की इस लड़ाई में हमारे लड़ाके कौन हैं ? राज्य पुलिस, केंद्रीय सुरक्षा बल, सेना या फिर कोई और ? सुरक्षा बलों में तालमेल की कमी भी मीडिया के मार्फ़त जगज़ाहिर हो चुकी है, हालिया वारदातों ने जता दिया है कि ख़ुफ़ियातंत्र बुरी तरह से विफल रहा है। यक़ीनन, आए दिन अपने साथियों का हश्र देख रहे जवानों के हौसले पर भी असर दिखने लगा है... वो मरने से नहीं डरते, लेकिन, सिर्फ़ इसलिए तो उन्हें मौत के मुंह में नहीं धकेला जा सकता। सियासी बयानबाज़ियों के लिए देश में मुद्दों की कमी नहीं... सियासतदां, सुरक्षा के मसले पर तो कम से कम संजीदा हों।
       एक वो हैं जो लड़ते-गिरते भारत मां के लिए वीरगति पाते हैं, एक ये हैं जो हर बार पानी सिर से ऊपर हो जाने की दुहाई देते हैं... और फिर ख़तरे के निशान को थोड़ा ऊपर कर देते हैं।

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