Sunday, December 05, 2010

इस जनादेश के मायने...

कुछ लिखने को जी कर रहा था, विषय नहीं मिल रहा था। अचानक एक ख़बर पर नज़र पड़ी। ख़याल आया कि इस पर लिखा जा सकता है। ख़बर यूं कि उत्तर प्रदेश के बदायूं ज़िले के एक गांव में एक भिखारी ने सरपंच का चुनाव जीत लिया है। ऐसा नहीं कि 60 बरस के नारायण नट उम्मीदवारों के अभाव या किसी त्रुटि की वजह से ग्राम प्रधान बने हों, बल्कि बाक़ायदा चुनावी समर में उतरकर, ग्यारह उम्मीदवारों को पटखनी देकर उन्होंने सरपंची हासिल की है।
                 सरसरे तौर पर देखा जाए तो कोई बहुत हैरत की बात नहीं है। हर नागरिक को चुनाव लड़ने का हक़ है। नारायण नट जीत गए, उन्हें बधाई। लेकिन सरसरे तौर पर ना देखा जाए, गंभीरता से सोचा जाए तो माज़रा इतना भी सरल नहीं है। नारायण के पुरखे भी भीख मांगते थे, नारायण की पत्नी और उसके बच्चे भी भीख मांगते है, नारायण भी भीख मांगते मांगते ही ज़िंदगी का सफ़र पूरा कर रहा है। यकायक क्या हुआ, जो लोगों को नारायण में नेतृत्व क्षमता नज़र आ गई। देश भर में विकास की बात हो रही है। ऐसा क्या लगा लोगों को, जो नारायण की हाथ में कमान सौंप दी गई?
              लोग पुराने नेतृत्व से आजिज़ आ चुके हैं। सत्ता का दुरुपयोग, पद प्रदर्शन, शक्ति प्रदर्शन, भ्रष्टाचार, दबंगई, रसूख साबित करना, अपराध, नैतिक पतन, ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैया, राजनीतिक शुचिता का उल्लंघन सब कुछ सियासत में इस तरह रच बस गया है कि अब ना लोगों को राजनीति पर भरोसा रह गया है और ना ही राजनेताओं पर। पुराने राजनीतिज्ञ उस वट वृक्ष की तरह हैं, जो अपनी छांह में किसी को पनपने नहीं देना चाहते। दिनों दिन गंदे होते राजनीतिक परिवेश में नए लोग ख़ुद को असहज पाते हैं। अतिशयोक्ति नहीं कि बतौर करियर, राजनीति उनकी फेहरिस्त के आख़िर में भी जगह नहीं पाता होगा। जो इक्का दुक्का सियासत में आना चाहते होंगे, उन्हें ज़मीन नहीं मिल पा रही है। कुल मिलाकर नया नेतृत्व पैदा ही नहीं हो रहा है। लिहाज़ा नारायण नट जैसे लोगों को जिताकर दुनिया का सबसे वृहद् लोकतंत्र अपनी खीझ मिटाने की कोशिश कर रहा है।
     मुझे कोई बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं है कि नारायण जैसे जनप्रतिनिधि जनअपेक्षाओं पर खरे उतर पाएंगे। क्या होगी अगली स्टेज?? मतदाता तब तो उसे भी जिताने का साहस खो चुका होगा। कितना भयावह हो सकता है ये भटकाव, कल्पना कीजिए।
     इन दिनों देश में दो बातों का ख़ूब शोर हैं। पहली, विकास। दूसरी, भ्रष्टाचार। विकास की इसलिए, क्योंकि बिहार जैसे राज्य में ना केवल विकास मुद्दा बना, बल्कि सरकार की दोबारा सत्ता में वापसी हुई। भ्रष्टाचार का नाम इसलिए सबकी ज़ुबान पर है, क्योंकि आए दिन क्या कुछ हो रहा है, वो आप देख सुन रहे ही हैं। ऐसा नहीं कि लोगों को ये बातें सोचने पर मजबूर नहीं करतीं। लोगों में आक्रोश है, तीखी प्रतिक्रियाएं करते हैं वो। जब बहुत ग़ुस्सा आता है तो राजनीतिक पार्टियों को कोसते भी हैं। जब और ग़ुस्सा आता है तो कह देते हैं कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता जब उनका ग़ुस्सा बेक़ाबू हो जाता है तो इतना तक कह देते हैं कि सब साले चोर हैं। बात ख़त्म।
       मैं सोचता हूं जब बात शुरू होने को आती है तो ही क्यों पूर्णविराम लगता है। हम इतने बड़े लोकतंत्र की अगुवाई कर रहे हैं। उम्र के शुरुआती सालों में ही जनता का, जनता के लिए, जनता को........ जैसे सबक हमारे कानों में पड़ गए थे। देश तरक्की कर रहा है, लेकिन इसकी बुनियाद यानी लोकतंत्र से लोग खिलवाड़ करते जा रहे हैं, करते जा रहे हैं, करते ही जा रहे हैं... और हम चुप हैं। इंतज़ार कर रहे हैं कि पुराने लोग चले जाएंगे, जो नए आएंगे वो भले होंगे, ईमानदार होंगे। कितने बुज़दिल हैं हम?? क्यों भ्रष्टाचार और तमाम दिल को झकझोर देने वाली बातों को सुनकर भी हमारा लहू नहीं फड़कता? सियासत और डोर थामे, इसे खेल समझ बैठे चंद लोग जो चाहते हैं, वो कर लेते हैं।
     यक़ीनन जनता बदलाव चाहती है, लेकिन उसके पास विकल्प नहीं है। लिहाज़ा कमान नारायण नट को दी जा रही है। लेकिन ये स्थाई समाधान नहीं, अच्छे लोगों को आगे आना होगा। जनता को अच्छे लोगों को पहचानना होगा, नाक़ाबिलों को नकारना होगा। ऐसा नहीं है कि देश कोई बहुत मुश्किल वक़्त से गुज़र रहा है, जहां संभावनाओं का अंत निकट है। ऐसी कई खरोचों को लोकतंत्र बिना किसी मुश्किल के आसानी से सह गया है। राजनीति में आने के लिए अच्छे लोगों को प्रोत्साहित करें।।

1 comment:

  1. तुम्हारी क़लम दिन-ब-दिन बहुत तेज़ होती जा रही है। राजनीति पर समझ अच्छी है और सोच उससे भी अच्छी। मैं इंतज़ार में तुम्हारे मैदान में आने के और कुछ अलग कर दिखाने के। बाकि तो दुआएं साथ हैं ही। वैसे ब्लॉग बड़ी ख़ूबसूरती से सजाया है।

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