Wednesday, July 08, 2009

तो यूं रहा बजट का सोमवार...

कल का दिन मेरे लिए बेहद ख़ास था, पिछले चंद रोज़ से मैं इस दिन के इंतज़ार में भी था... आख़िर कुछ ख़ास तैयारियां जो थी। आख़िर देश के बजट जो पेश होने थे। सिलसिला शुरू हुआ शुक्रवार को... बंगाल की तेज़ तर्रार नेत्री और देश की रेल मंत्री ममता बनर्जी के रेल बजट पेश करने के साथ। दो दिन का इंतज़ार और था, फिर देश का आम बजट। टीवी का आदमी हूं, बजट को लेकर हमारी भी कुछ तैयारियां थी, सो मैं कुछ ज़्यादा ही सजग। शनिवार बीता, रविवार का दिन निकला, और शाम होते-होते मैं पहुंच गया दफ़्तर, अगली सुबह पेश होने वाले बजट पर कहानी लिखने। यही नहीं बजट की शब्दावली पर भी बाक़ायदा निगाह डाली मैनें। पूरी रात इस इंतज़ार में कट गई कि एसटीटी और सीटीटी ख़त्म होंगे या नहीं (इतनी हसरत तो वित्त मंत्री साहब को भी शायद ही रही होगी), और ख़त्म हो भी गए तो मुझे दूसरे दिन तक ये आर्थिक शब्दावलियां याद रहेंगी या नहीं।
ख़ैर साहब, सुबह हुई... और ये उदीयमान युवा पत्रकार चल दिया दफ़्तर, बजट पर अपनी ख़ास पेशकश देने। अपनी ही उधेड़बुन में था कि पड़ोस वाली आंटी पूछ बैठी, अरे बेटा आज सुबह-सुबह, मैने मुस्कुरा कर कहा, जी हां... आज दफ़्तर में थोड़ा ज़रूरी काम है, जल्दी बुलाया है। आंटी ने भी मुस्कुरा कर कहा, अच्छा आज बजट जो ठहरा... मैनें मन ही मन सोचा कि हम ही नहीं, लोग भी टीवी देखते हैं। मैं इजाज़त लेता इससे पहले ही आंटी ने फिर सवाल दाग़ा, अच्छा बेटा ये बताओ रसोई को राहत के कोई आसार हैं, क्या सिलेंडर सस्ता होगा, क्या महंगाई कम होगी ? रात भर एसटीटी, सीटीटी, एफबीटी और जानें किन-किन बजटीय शब्दों में उलझा मैं ये ख़ुशफ़हमी पाल बैठा था कि मैं ही परेशान हूं... यहां तो फ़िक्र करने वाले और भी हैं। मैनें तो बस इतना कह सका कि.. देखिए अब। मोटरसाइकिल स्टार्ट की और चलने ही को था कि आंटी फिर कह बैठी, अरे बेटा पेट्रोल भरवा लेना, दफ़्तर से लौटते-लौटते कहीं महंगा ना हो जाए। मैनें इस दफ़ा जवाब देना मुनासिब नहीं समझा और बढ़ गया आगे।
सोचा चाय पी लूं, ठहर गया नुक्कड़ की गुमटी पर। सुबह के आठ बजे ही यहां अच्छी ख़ासी भीड़ थी, मैनें सोचा देखा जाए माज़रा क्या है। चाय ऑर्डर की, और लग गया बतरस लेने। दो मिनट में सब समझ आ गया, मुहल्ले के सारे विद्वज्ञ बजट पर चर्चा कर रहे थे। किसी को आयकर छूट का दायरा बढ़ेगा या नहीं इस बात की फ़िक्र थी तो किसी को सरचार्ज हटने से इत्तेफाक था। समझते देर न लगी कि यहां से खिसक लेने में ही भलाई है।
मैं ऑफिस पहुंचा, सारे न्यूज़ चैनल आई एम द बेस्ट की तर्ज़ पर लगे हुए थे। बेहतर तकनीक और शानदार ग्राफिक्स हमारी तैयारियों के गवाह थे। वो आपाधापी चली कि पता ही नहीं लगा, बजट कब आया और कब गया। मुझे तो अपने एफबीटी और सीटीटी के ख़त्म होने का जश्न मनाने का मौक़ा भी नहीं मिला।
मैं लगातार लिखे जा रहा हूं, और आप हैं कि पढ़े जा रहे हैं। पूछिए तो सही, मैं कहना क्या चाह रहा हूं। मैं कहूं भी तो कैसे, क्योंकि मैं कहीं रिक्शा चला रहा हूं तो कहीं मैं पांच हज़ार मासिक आमदनी वाला बाबू हूं, मैं कहीं गृहिणी हूं तो कहीं वो मेहनतकश जिसे कमाना है, और सुकून से रात को अपने घर में चूल्हा जलते देखना है। मैं कहीं रईस उद्योगपति हूं तो कहीं लाखों रुपए की सालाना तनख़्वाह वाला प्रोफेशनल, मैं कहीं किसान हूं तो कहीं नौजवान। सबके बजट के अपने-अपने मायने हैं... देश के आम बजट में सबका खुद का बजट निहित है, किसी को तीन रुपए किलो में चावल या गेहूं देने की ख़बर सुकून देती हो तो किसी को विनिवेश पर एफएम की साफ़गोई। करोड़ों की किसी कंपनी का मालिक इस बात को सोचकर रात भर नहीं सो सका होगा कि उसकी कंपनी के शेयर लुढ़क गए तो कोई ग़रीब पिछले दो दिनों से ये सोचकर दीवाना हुआ बैठा होगा कि अब पच्चीस रूपए में महीने भर ट्रेन का सफ़र किया जा सकेगा। अजी हम तो दस हज़ार की आयकर छूट पर ही ख़ुशी नहीं छिपा पा रहे हैं लेकिन ऐसे भी हैं... जो चैनल और अख़बार के दफ़्तरों में बैठकर निर्यात में कमी का रंज मना रहे हैं।
यूपीए की नई सरकार है, दोबारा वापसी के बाद पहला बजट है। इस टीम का कैप्टन खुद जाना माना अर्थशास्त्री है, टीम में पी चिदंबरम हैं, प्रणब दा भी कम अनुभवी नहीं, पच्चीस साल पहले ही बजट पेश कर चुके हैं। ख़ैर सभी मंजे हुए खिलाड़ी हैं, तो हम भी कहां कम ठहरे, टिप्पणी तो देंगे ही देंगे... ख़बरनवीस जो हुए। सरकार की दोबारा वापसी हुई है, लिहाज़ा आम आदमी के क़दम ठीक ढंग से से आगे बढ़ रहे हैं या नहीं... ये देखना और इसे सुनिश्चित करना सरकार का फ़र्ज़ है। नरेगा के ज़रिए सरकार पांच करोड़ लोगों को रोज़गार दिए जाने के दस्तावेज़ दिखाती है, एक करोड़ से ज़्यादा युवाओं को रोज़गार देने की बात करती है.... लेकिन सवाल वहीं अटका है, ये रोज़गार संगठित तौर पर हो और स्थाई हो। किसी को तीन दिन भरपेट खिलाकर अगले चार दिनों के लिए भूखा नहीं छोड़ा जा सकता।
सरकार ने इस साल के लिए दस लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा का जंबो बजट पेश किया है, पुरानी और नई योजनाओं के लिए पैसा भी भरपूर मिला है... सरकारी प्रक्रियाओं के सरलीकरण के लिए कोशिशों में ईमानदारी भी दिख रही है, प्रणब दा के बजट को ‘गांवों पर फोकस’ करार दिया जा रहा है, लेकिन एक मलाल है, पैसा जिन पर और जहां ख़र्च होना है, इस बारे में थोड़े तफ़्सील से जानकारी और दी जाती तो बेहतर होता। उम्मीद है अगले बजट पर देश के और भी कई गांवों तक रोशनी दस्तक देगी, कुछ और बेरोज़गार मुहल्लों की चौपाल छोड़ घर का आसरा बनेंगे, उम्मीद है मेरे देश में शिक्षा का स्तर और सुधरेगा, पिछड़े इलाक़े ना केवल सड़कों से जुड़ेंगे बल्कि वहां अस्पताल और स्कूल-कॉलेज होंगे, उम्मीद है हम खुद को और महफ़ूज़ महसूस करेंगे, उम्मीद हैं हम और ख़ुश होंगे। तभी सही भारत निर्माण होगा, और हर क़दम पर भारत बुलंद होगा।

1 comment: