Thursday, November 11, 2010

बातें बालाघाट की: पहली किस्त

मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह सरकार की दूसरी पारी में तीन मंत्री इस ज़िले का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, ठीक उसी वक़्त केंद्र की अटल बिहारी वायपेयी सरकार में इस संसदीय क्षेत्र के सांसद मंत्री थे। यानी कुल चार मंत्री... एक ऐसे ज़िले से चुनकर भोपाल और दिल्ली में राजसत्ता का सुख भोग रहे थे, जब उनके निर्वाचन क्षेत्र दिनों-दिन बीमारू की श्रेणी में शामिल होते जा रहे थे। मैं समय की उस ख़ामोश हो चुकी लहर का ख़ास तौर पर इसलिए ज़िक्र कर रहा हूं क्योंकि यही वो दौर था, जब मैंने लोकतंत्र के जलसे में पहली आहूति दी थी। जी हां, पहली दफ़ा वोट डाला था। यही वो दौर था, जब मेरे अंदर राजनीतिक सोच और विचारधारा पनपने लगी थी। नागरिक होने का एहसास होने लगा था। इसके बाद न ही राज्य सरकार के ये तीनों मंत्री ही जीत सके और न ही केंद्र की सत्ता का सुख पा चुके सांसद महोदय।

मैं बात कर रहा हूं, बालाघाट की। मध्य प्रदेश का एक ज़िला है बालाघाट। मैंने यहीं जन्म लिया है। महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सीमा पर बसा एक शांत और ख़ूबसूरत शहर। प्रकृति यहां किस कदर अपनी ममता लुटाती है, ये शब्दों में कह पाना तो मुश्किल है। लेकिन कभी अगर आप यहां आएं तो पाएंगे कि सतपुड़ा की सरपरस्ती बालाघाट की ख़ूबसूरती में चार चांद लगा देती है। कुदरत का अकूत ख़ज़ाना यहां की ज़मीन में दबा हुआ है। एशिया की सबसे बड़ी कॉपर की खुली खदान इसी ज़िले के मलाजखंड में है। भरवेली अपने स्तरीय मैगनीज़ के लिए दुनिया भर में मशहूर है। इसके अलावा पूरे ज़िले में कहां-कहां मिट्टी अपने अंदर क्या-क्या समेटे हुए है, कहना मुश्किल है। संसाधनों की बात करें तो यहां का बांस भी विश्वस्तरीय है, जिसकी दुनिया भर में ख़ासी मांग है। यहां का सागौन काफ़ी उन्नत श्रेणी का है। यहां का उत्कृष्ट कोटि का चावल भी अपनी अलग ही पहचान रखता है। खेती के लिए यहां की ज़मीन उपजाऊ है, पानी की कोई कमी नहीं है। वन संपदा के लिहाज़ से भी बालाघाट काफ़ी समृद्ध है। कुल मिलाकर पहली नज़र में इस ज़िले की एक ख़ुशनुमा तस्वीर उभरकर सामने आती है, जो किसी भी क्षेत्र की तरक्की के लिए पहली ज़रूरी शर्त है।

इतना सब होने के बाद भी, आज़ादी के इतने बरसों के बाद तरक्की की दौड़ में बालाघाट कहीं नहीं है। सरकार रेवेन्यू का बड़ा हिस्सा यहां से हासिल करती है, लेकिन यहां के विकास के नाम पर अगर ईमानदारी से सोचा जाता तो आज शायद तस्वीर कुछ और ही होती। लेख की शुरुआत में ही मैंने बालाघाट के नेतृत्व का ज़िक्र किया है, वो इसलिए क्योंकि राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव हमेशा ही यहां विकास में रोड़ा बनता रहा है। आज़ादी के बाद जाने कितने सांसद हुए, कितने ही विधायकों को राज्य मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व करने का मौक़ा मिला, लेकिन विकास को लेकर शायद ही कोई सियासतदां संजीदा हुआ हो। बात चाहे भोलाराम पारधी की हो, चिंतामनराव गौतम की, पीसीसी के अध्यक्ष रह चुके नंदकिशोर शर्मा की हो या विधानसभा के अध्यक्ष रह चुके तेजलाल टेंभरे की हो, कोई भी अपने क़द के मुताबिक़ बालाघाट के साथ न्याय नहीं कर सका। इसके अलावा शंकरलाल तिवारी, थानसिंह बिसेन, एनपी श्रीवास्तव, मधुसूदन गौतम, राणा हनुमान सिंह, सुरेंद्र खरे, विपिन पटेल, रमणीक लाल त्रिवेदी, लोचनलाल ठाकरे, यशवंतराव खोंगल, ओझा भाऊ रहांगडाले,  नीलकंठ बनोटे, कचरूलाल जैन, मोतीराम ओड़गू, लोचनलाल ठाकरे, भुवनलाल पारधी,  मुरलीधर असाटी, कन्हैया लाल खरे, चित्तौड़ सिंह, महिपाल सिंह उईके, प्रताप लाल बिसेन, झनकार सिंह नगपुरे, दिलीप भटेरे, लिखीराम कावरे आदि ने भी लंबे समय तक जिले की बागडोर अपने हाथ में रखी (सभी नेता दिवंगत हैं)। सभी अपने आप में बड़े नाम थे, शिखर पर बैठे राजनीतिज्ञों से इनकी ख़ूब बनती थी। जिले के विकास के लिए ये दोस्ती कभी काम आई हो, ऐसा देखने को नहीं मिला। मौजूदा राजनीतिज्ञों की बात करें, तो बालाघाट विधानसभा से विधायक और राज्य सरकार में काबीना मंत्री गौरीशंकर बिसेन लंबी पारी खेल चुके हैं और सर्वमान्य नेता हैं। कटंगी से विधायक विश्वेश्वर भगत दो बार सांसद रह चुके हैं, अर्जुन सिंह सरकार में मंत्री रह चुके हैं। बालाघाट के मौजूदा सांसद केडी देशमुख पहली बार दिल्ली गए हैं, लेकिन पांच मर्तबे विधानसभा में जनता की नुमाइंदगी कर चुके हैं। लगातार हार का सामना कर रहे तेज़ तर्रार नेता कंकर मुंजारे के तेवर मध्य प्रदेश विधानसभा में कई बार देखे गए हैं। उनकी पत्नी अनुभा मुंजारे भी लगातार दो बार बालाघाट नगर पालिका का नेतृत्व कर चुकीं हैं। वारासिवनी विधायक प्रदीप जायसवाल तीसरी बार विधायक बने हैं। जनता के बीच ख़ासे लोकप्रिय हैं, लिहाज़ा वारासिवनी नगर पालिका में अपनी पत्नी को अध्यक्ष बनवाने में क़ामयाब रहे। बैहर से विधायक भगत नेताम भी अपने पिता सुधनवा सिंह नेताम की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। बैहर से ही विधायक रह चुके पूर्व मंत्री गणपतसिंह उईके का जादू अब ख़त्म सा हो गया है। इधर लांजी विधानसभा में पूर्व मंत्री दिलीप भेटेरे के युवा पुत्र रमेश भटेरे विधायक हैं। परसवाड़ा से भी युवा विधायक रामकिशोर कावरे युवा हैं, पहली बार विधानसभा पहुंचे हैं। कटंगी से ही दो बार विधायक रहे पूर्व मंत्री तामलाल सहारे इन दिनों मौक़े की तलाश में हैं। परिसीमन से पहले वजूद में रही खैरलांजी सीट से मंत्री रहे बाबा पटेल कहां ग़ायब हैं, पता नहीं।

कुल मिलाकर नेताओं की लंबी फेहरिस्त है। सभी बड़े नाम हैं। फिर ज़िले का नाम बड़ा क्यों नहीं है, अहम सवाल है। आज़ादी के बाद लंबे समय तक कांग्रेस सत्ता में रही है, और बालाघाट को कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है। विधानसभा की 6 सीटों (परिसीमन से पहले 8) पर कांग्रेस का वर्चस्व हुआ करता था। बालाघाट को कमलनाथ के प्रभाव वाला ज़िला माना जाता है। ये कितना सच है, कहा नहीं जा सकता। लेकिन हां, कांग्रेस का पत्ता भी कमलनाथ के इशारे के बग़ैर नहीं हिलता, ये बात सौ फ़ीसदी सही है। नाथ साहब जब भी बालाघाट आते हैं, इसे गोद लेने की बात कह देते हैं। जनता ख़ुश हो जाती है, ख़ूब तालियां पीटती हैं। वैसे मैंने एक बात जो बहुत शिद्दत से महसूस की है, वो ये है कि कमलनाथ बालाघाट में कांग्रेस की कमान ऐसे हाथों में रखना चाहते हैं, जो उनके दरबार में सिर्फ़ सिर झुकाकर खड़े रहना जानते हों। टिकटों के बंटवारे में ये बात साफ़ दिखती है, जिताऊ उम्मीदवार कांग्रेस की टिकट शायद ही हासिल कर पा रहे हों। चाटुकारिता की इस गंदी राजनीति में बालाघाट को बहुत नुक़सान हुआ है। न ही अच्छे नेता मिल सके, न ही विकास हो सका।

बात भाजपा की करें, तो कोई शक़ नहीं... ज़िले की राजनीति में इस समय भाजपा ड्राइविंग सीट पर है। पार्टी के दिग्गज नेता गौरीशंकर बिसेन ख़ुद सरकार में मंत्री है। अनुभवी नेता केडी देशमुख पार्टी से सासंद हैं। ज़िले के अंधिकांश भाजपा विधायक युवा हैं। शिवराज सरकार की दूसरी पारी है, जिसके मुक़ाबले ज़िले में काम हो रहे हों, ऐसा दिखता तो नहीं। सभी नेता बहुत जल्दबाज़ी में दिख रहे हैं, अब उन्हें ही जल्दी है तो जनता भला क्यों देर लगाएगी। मिलते हैं 2013 में।

इस वक़्त ज़िले की राजनीति में जितने भी अनुभवी नेता हैं, वो अपनी विदाई का इंतज़ार कर रहे हैं। लेकिन नया नेतृत्व असरदार तरीके से आ नहीं रहा है, सो वो भी डटे हुए हैं। एक समय था, जब सत्तर के दशक में रामस्वरूप शुक्ला की अगुवाई में युवा तरुणाई की ऐसी आंधी चली कि भोपाल तक इसकी गूंज सुनाई दी थी। शुक्ला ने कांग्रेस से युवाओं को विधायक की टिकटें भी दिलवाई, लेकिन राजनीतिक तौर पर वे विफल रहे। मैं बालाघाट में हुए एक कार्यक्रम में गया था, जहां शुक्ला जी भी मौजूद थे। जब उनसे मार्गदर्शन के तौर पर दो शब्द कहने को कहा गया तो उन्होंने साफ़ कहा था कि जिसे ख़ुद ही मार्ग के दर्शन नहीं हुए, वो दूसरो को क्या मार्गदर्शन देगा? उनकी पीड़ा सहज ही समझी जा सकती थी। उसी दौर के युवा तुर्क अशोक मिश्रा, इंदर चंद जैन सरीखे नाम भी नेपथ्य में गुम हो गए।

सही नेतृत्व न होने का एहसास हमें इसलिए कचोटता है, क्योंकि दुनिया तेज़ी से आगे बढ़ रही है और मुट्ठी भर राजनीतिज्ञों ने आज तक हमारे ज़िले से छल ही किया है। यक़ीन मानिए वक़्त करवट ले रहा है, नया ख़ून सुनियोजित तरीक़े से दस्तक दे रहा है। वो दिमाग़ रखता है, तकनीक से लैस है, मूल्यों को समझता है, विरासत को आगे बढ़ाना जानता है, तरक्की पसंद है। अपने बालाघाट को और सहते वो नहीं देख पाएगा। कहीं ऐसा न हो अगला चुनाव जमे हुए राजनीतिज्ञों की ज़मीन ही छीन ले।

“झुक के मिलते हैं तो कमज़ोर ना समझना, शाख फलदार हो तो लचक आ ही जाती है।”

(लेखक युवा पत्रकार हैं, फिलहाल दैनिक भास्कर, भोपाल में हैं )


4 comments:

  1. bahut badhiya... achcha lekh hai... raajneeti ke saath hi samajik muddon ko bhi uthane ki kshish kijiye... jai shri krishna.

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  2. Hi Nishant

    Achha lagta hai jab naye daur ke log apni soch rakhte hai, aur ye jaruri hai, bahut se bhai hai jo aisi hi pragtisheel soch rakhte hai, bas kehte nahi,
    mai bahoot khoosh hoo, mai tumhare jaisa likh to nahi sakta par tumse ummid karta hoo ki tum aur bhi jaruri aur samajik muddo ko samj ke samne rakhoge, hum tumhare sath hai dost...
    take care

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  3. धन्यवाद हमारे अनुरोध पर बालाघाट की समस्याओं पर ब्लॉग लिखा

    bus nishant babu u hi likhte raho abhi likhne ke liye bahut kuch hai ye to shuruwat hai abhi se kaha topic ki chinta kar rahe ho......

    mai to yahi kahunga ki ab in netaon ki mahanta ke vsishay me likho ki kis tarah se aage badte rahe balaghat pichadta gaya , kis tarah se inhone hi kis tarah se rajnitee ko jati waad se joda ; kis tarah se ye amir bante gaye aur yuva rojgaar ko taras rahe hai...... kis tarah se in ki kamjori se balaghat se indistries dur hoti chali gaye

    aage likhne ko bahut kuch hai aur tumhe kuch batna matlab suruj ko diya dikhna hi hoga ,par balaghat ki tasver lagatar badal rahi hai aur is badalti tasver ka dhyan rakhna . hum pragati path par hai ye jalak bhi aap ko hi apne blog me dikhani hogi.........

    umeed hai sabhi aapke agli kisht ka intazar kar rahe honge , mai bhi kar raha hu...

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  4. kafi accha lekh hai ... kayi aisi bateen pata chali jinka knowldge nahi tha... balaghat bachapan mein ek baar ana jarur hua tha , par kuch thik se yaad nahi .... par yeh padh kar lag raha hai vakai prakritik roop se kafi sundar hai , bas development mein piche reh gaya ...sahar...

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